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रामधारी सिंह 'दिनकर' का संपूर्ण जीवन परिचय


राष्ट्रीय भावनाओं के ओजस्वी गायक कविवर रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 30 सितम्बर सन 1908 में बिहार प्रदेश के मुंगेर जिले के सिमरियाघाट नाम के गांव में हुआ थाउन्होंने पटना विश्वविद्यालय से 1933 में बीo एo ऑनर्स की परीक्षा पास की और फिर एक  स्कूल में अध्यापक हो गए । उसके बाद सीतामढ़ी में रजिस्ट्रार बने । सन 1950 में इन्हें मुजफ्फरपुर के  स्नातकोत्तर महाविद्यालय के हिंदी विभाग का अध्यक्ष बनाया गया। 1952 में इन्हें राज्यसभा का सदस्य मनोनीत किया गया लेकिन दिनकर की काव्य साधना निरंतर जारी रही ।  सन 1961 में इनका बहुचर्चित काव्य 'उर्वर्शी' प्रकाशित हुआ और इस रचना पर इन्हें 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव प्राप्त हुआ। दिनकर जी ने भारत सरकार की 'हिंदी समिति'के सलाहकार और आकाशवाणी के निर्देशक के रूप में महत्वपूर्ण कार्य किया । हिंदी साहित्य का सूर्य 24 अप्रैल 1974 को सदा के लिए अस्त हो गया ।
रचनाएँ - दिनकर एक सशक्त साहित्य सर्जक थे।  उन्होंने अपनी समर्थ लेखनी से गद्य और पद्य दोनों क्षेत्रों में हिंदी साहित्य की पूर्ण निष्ठा से सेवा की।
काव्य रचना- प्राण भंग, रेणुका, हुँकार, रसवंती इंदु गीत , समाधेनी,विदोह शिखा ,कलिंग विजय,धूप-छांव, बापू ,रश्मिरथी, इतिहास के आंसू , नीम के पत्ते , मगध महिमा, एकायन ,दिल्ली ,देव विवाह ,नील कुसुम, चक्र- वाल, परशुराम की प्रतीक्षा , हारे को हरीनाम,सीपी और शंख,रेती के फूल ,कुरुक्षेत्र ,उर्वर्शी आदि  आप की काव्य रचनाएं हैं । 

गद्य रचनाएं - "हमारे सपने की हिंदी कविता" और "संस्कृति के चार अध्याय" आदि इनकीरचनाएं हैं ।इसके अतिरिक्त "चित्तौड़ का शाखा" और "मिर्च का माजा" इनका बाल साहित्य है
"दिनकर"  प्रारंभ से ही लोकहित के प्रति निष्ठावान सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति सजक और जनसाधारण के प्रति समर्पित कवि रहे थे।तभी तो इन्होंने छायावादी कवियों की भाँति काव्य रचना न करके "रेणुका" का आलोक छिटकया । फिर "रसवती" के प्रणयी गायक के रुप में इनका कुसुम कोमल व्यक्तित्व प्रकट हुआ । लेकिन देश की विषम परिस्थितियों की पुकार ने कवि को भावुकता, कल्पना और स्वप्न के रंगीन लोक में खींचकर उबड़-खाबड़ धरती पर लाकर खड़ा कर दिया तथा शोषण की चक्की में पिसते हुए जनसाधारण और उनके भूखे-नंगे बच्चों का प्रबल समर्थक बना दिया। समाज में व्याप्त आर्थिक शोषण तथा कष्टदाई आर्थिक विषमता को देखकर कवि का  कोमल हृदय चीत्कार कर उठाता हैं।जैस किे उन्होंने पूंजीवादी व्यवस्था की आलोचना में कहा है कि-
श्वानों को मिलता दूध वस्त्र भूखे बालक अकुलाते हैं। युवती के लज्जा वसन बेच, जब ब्याज चुकाये जाते हैं..
'दिनकर' की काव्य प्रतिभा का चरमोत्कर्ष उसके नाटकीय काव्य "उर्वर्शी" में दृष्टिगत होता है । इनकी  रचनाओं में एक ओर प्रेम और राष्ट्रीयता की भावनाएं है, तो दूसरी ओर प्रगति,क्रांति और जीवन संघर्ष का प्रखर स्वर है। इन्होंने अपने प्रबंध काव्य में प्राचीन आख्यानों की वर्तमान समस्याओं की मांग के अनुकूल नवीन व्याख्याएं की है । "कुरुक्षेत्र" नामक महाकाव्य में इन्होंने महाभारत से कथानक लेकर उसके आधार पर युद्ध की शास्वत समस्या पर विचार किया है।

'दिनकर' ने अपनी रचनाओं में अपनी विद्रोहशील मनोवृत्ति और सौंदर्य चेतना को वाणी देने के अतिरिक्त कुछ अन्य प्रवृतियों को भी अभिव्यक्ति प्रदान की है। इसके "नीम के पत्ते" संगलन में आज के भी राजनेताओं पर बड़े तीखे व्यंग है ।
'दिनकर' जी की भाषा वेगवती,सशक्त और ओजपूर्ण है। उन्होंने जहां क्रांति की ज्वाला से भभकते गीत गाये हैं , वही भाषा भी उग्र वेग धारण चलती है और  जहां उन्होंने प्रेम और सौंदर्य की सुकुमार और मधुर भावनाओं के गीत गाए हैं , वहां भाषा शैली मंथर वेग कोमल स्वर लहरी का आश्रय लेती है । 'दिनकर' के काव्य में उपमा,उत्प्रेक्षा,रूपक विभावना आदि  अलंकारों का स्वभाविक प्रयोग मिलता है । इसके साथ ही उन्होंने अपनी रचनाओं में छंदों का सहज प्रयोग किया है ।
अतएव रामधारी सिंह 'दिनकर' सचमुच 'युग कवि' और 'युग चारण' थे।

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